पर्यावरण के मूल घटक- स्थलमंडल, वायुमण्डल, जलमण्डल, जैवमण्डल
पर्यावरण के मूल घटक
पर्यावरण को सम्पूर्ण रुप से समझने के लिए यह आवश्यक है कि पर्यावरण के मूल घटकों - स्थलमंडल, जलमंडल एवं जीवमंडल को समझा जाए। अतः इन घटकों का वर्णन निम्नलिखित है-
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| पर्यावरण के मूल घटक- स्थलमंडल, वायुमण्डल, जलमण्डल, जैवमण्डल |
1. स्थलमंडल
स्थलमंडल पृथ्वी के उपरी परत को कहते हैं।
जिसके ऊपर हमारे महाद्वीप एवं समुद्री भाग स्थित हैं। महाद्वीप क्षेत्रों में यह सर्वाधिक मोटा है जहां इसकी औसत मोटाई 40 कि0मी0 है। समुद्री भागों में यह अत्यधिक पतला है जहां इसकी अधिकतम ऊंचाई 10 से 12कि0मी0 तक हो सकती है। स्थलमंडल पृथ्वी के सम्पूर्ण आयतन का लगभग 1 प्रतिशत और उसके कुल द्रव्यमान का 0.4 प्रतिशत है।
यद्यपि स्थलमंडल में तकनीकी दृष्टि से पृथ्वी के ऊपरी भाग और समुद्री तल दोनों को ही शामिल किया जाता है फिर भी ज्यादातर इसका प्रयोग केवल भूमितल दर्शाने के लिए किया जाता है। इस दृष्टि से स्थलमंडल सम्पूर्ण पृथ्वी का 30 प्रतिशत और शेष 70 प्रतिशत भाग समुद्र ने ले लिया है।
स्थलमंडल का भू-पर्पटी सिलिका और एल्युमीनियम (SiAl) की प्रधानता वाले अवसादी एवं ग्रेनाइट चट्टानों से बना है। पृथ्वी के पर्पटी में 100 से अधिक तत्व पाये जाते हैं, किन्तु उसके लगभग 98 प्रतिशत भाग की संरचना में क्रमशः आक्सीजन 47 प्रतिशत, सिलिकन 27 प्रतिशत, एल्युमीनियम 8.13 प्रतिशत, लोहा 5 प्रतिशत, कैल्सियम, सोडियम , पोटैशियम और मैग्नीशियम को योगदान होता है। स्थलमंडल में 87 प्रतिशत खनिज सिलिकेट है। स्थलमंडल के चट्टानों का वर्गीकरण आग्नेय अवसादी तथा रुपान्तिरित चट्टानों में किया गया है।
इन विभिन्न प्रकार के चट्टानों के अपक्षय से विभिन्न प्रकार के मृदा का निर्माण हुआ है और मृदा (Soil) ही पर्यावरण के सम्पूर्ण जीव जगत के भोजन का मूल स्त्रोत है। बेसाल्ट चट्टान से प्रायद्वीपीय भारत के पश्चिमोत्तर भाग का डेक्कन ट्रेप का निर्माण हुआ है। बेसाल्ट के अपक्षय से ही काली या रेगुर मृदा का निर्माण इस क्षेत्र में हुआ है।
पृथ्वी के स्थलमंडल का लगभग तीन चैथाई भाग अवसादी चट्टानों से ढका है। पौधों और जानवरों के अवशेषों से उत्पन्न जैव पदार्थ भी अवसादी चट्टानों का निर्माण करते हैं। कोयला और चूने का पत्थर जैविक उत्पत्ति वाली अवसादी चट्टानों के अच्छे उदाहरण हैं।
जब दाब, ताप आदि कुछ बाह्य शक्तियों द्वारा चट्टानों के मूल लक्षण में आंशिक अथवा पूर्ण परिवर्तन होता है तो उन्हें हम रुपान्तरित चट्टानें कहते हैं। जैसे कोयला का ग्रेफाइट में तथा चूना पत्थर का संगमरमर में रुपान्तरण।
2. वायुमण्डल
पृथ्वी को चारों ओर से आवरण की तहर घेरे हुए हवा के विस्तृत भंडार को वायुमंडल कहते हैं। वायुमंडल पृथ्वी से गुरुत्वाकर्षण द्वारा बंध हुआ है। चन्द्रमा जैसा उपग्रह जिसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति बहुत कम होती है, वायुमंडल को धारण नहीं कर सकता है।
वायुमंडल के द्वारा ही जन्तुओं के श्वसन के लिए आक्सीजन तथा पौधों के प्रकाशसंश्लेषण के लिए कार्बन डाइआक्साइड जैसी जीवनदायिनी गैसें प्राप्त होती है। वायुमंडल एक तरह के 'कांच घर' का भी कार्य करता है जिससे सौर विकिरण के लघु तरंगों को पृथ्वी के धरातल पर आने देता है लेकिन धरातल से विकिरित होने वाली लम्बी तरंगों को बाहर जाने से रोकता है जिसमें पृथ्वी को औसत तापमान बना रहता है।
वायुमंडल में विभिन्न गैसें और जलवाष्प होते हैं और अपने सर्वाधिक उपरी भाग में यह परमाणविक कणों से आवेशित होते हैं। पृथ्वी से 50 कि0मी0 की दूरी तक वायुमंडल में 78 प्रतिशत नाइट्रोजन, 21 प्रतिशत आक्सीजन, 0.93 प्रतिशत आर्गन, 0.03 प्रतिशत कार्बन डाई-आक्साइड तथा हाइड्रोजन और ओजोन गैस होती है।
निम्न वायुमंडल में लगभग 12 कि0मी0 तक 0.01 से लकर 1 प्रतिशत तक की सांद्रता में जलवाष्प होता है। यद्यपि वायुमंडल में जलवाष्प का परिमाण काफी कम होता है, फिर भी इसका अत्यधिक महत्व है क्योंकि वायुमंडल में पानी के बिना पृथ्वी पर कोई मौसम नहीं होता।
जलमंडल से वाष्पन के द्वारा और पौधों के पाष्पोत्सर्जन के जरिए पानी वायुमंडल में प्रवेश करता है और हिम एवं वर्षा के रुप में पुनः स्थलमंडल एवं जैवमंडल को प्राप्त होता है। इस प्रकार से यह चक्र निरन्तर चलता रहता है।
3. जलमण्डल
अनुमानतः जलमंडल में लगभग 1.46 अरब घन कि0मी0 पानी है । इसमें से 97.3 प्रतिशत महासागरों में एवं सागरों में है। शेष 2.7 प्रतिशत हिमनदी, झीलों, तालाबों, नदियों और भूमिगत जल के रुप में पाया जाता है।
महासागर-
महासागर पृथ्वी के कुल धरातल क्षेत्रफल के 70.8 प्रतिशत भाग को आच्छादित किए है और इनमें 144.5 करोड़ घन कि0मी0 पानी है। सौर ताप महासागर के जल को गतिशील रखता है। भू-मध्यरेखीय क्षेत्र में सूर्य पानी को गर्म कर देता है। जिससे यह फैलकर कुछ इंच उपर उठ जाता है।
महासागरीय क्षेत्र को चार महासागरों में वर्गीकृत किया गया है-
प्रशान्त महासागर, अटलांटिक महासागर तथा आर्कटिक महासागर। महासागरों में सबसे बड़ा और पुराना है प्रशान्त महासागर। पृथ्वी के क्षेत्रफल के 35.25 प्रतिशत भाग पर यह फैला है। प्रशान्त महासागर का 'मैरियाना ट्रेंच' सबसे गहरा गर्त है। प्रशान्त महासागर में आस्ट्रेलिया के क्वींसलैण्ड के समीप संसार की सबसे बड़ी प्रवाल भित्ति पायी जाती है जो ‘ग्रेट बैरियर रीफ' के नाम से प्रसिद्ध है। महासागरीय जल की लवणों की कुल मात्रा में 77.5 प्रतिशत मात्रा सोडियम क्लाराइड की होती है।
महासागरीय जीवन-
समुद्री पर्यावरण में अनेक प्रकार की जैव समुदाय पाए जाते हैं। प्रकाश की तीव्रता, गहराई, समुद्री धाराएं, पोषक पदार्थ तथा जल में घुली गैस आदि कुछ ऐसे कारक हैं जो महासागरों के जीवन को प्रभावित करत हैं। समुद्री पर्यावरण मेें जैवमंडल के उपरी भाग को पैलेजिक तथा महासागरीय नितल को बेथिक क्षेत्र कहते हैं। समुद्री जीव के लिए नैरेटिक क्षेत्र सर्वाधिक महत्व का होता है।
नैरेटिक क्षेत्र की गहराई 200 मीटर से कम होती है और इसमें समुद्री जीवों की आबादी सबसे अधिक होती है। समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में शैवाल उत्पादक वर्ग के जीव हैं विभिन्न प्रकार के समुद्री शैवाल से ही जलीय जन्तुओं को भोजन प्राप्त होता है जिसे फाइटोप्लेंकटन कहा जाता है। उत्तरी अटलांटिक महासागर का सारगेसो सागर का नामकरण सारगौसो एल्गी के नाम पर रखा गया है।
4. जैवमण्डल
जैवमंडल से तात्पर्य पृथ्वी के उस भाग से है जहां जीवन पाया जाता है। जैवमंडल की परत पतली किन्तु अत्यधिक जटिल है। जैवमंडल की संकल्पना को सर्वप्रथम आस्ट्रेलियन वैज्ञानिक एडवर्ड सुएस ने प्रस्तावित की थी।
जैवमंडल का विशिष्ट लक्षण यह है कि जीवन को आधार प्रदान करती है। जैवमंडल में विभिन्न आकार के जीव पाए जाते है। ये जीव सूक्ष्म जीवाणु से लेकर विशालकाय व्हेल अथवा बड़े वृक्ष के आकार तक के होते हैं। जैवमंडल के सभी जीवों को तीन मुख्य वर्गों में बांटा गया है-
1.जन्तु समुदाय
2.वनस्पति समुदाय
3.सूक्ष्म जीवी
जन्तु समुदाय में प्रोटोजोआ संघ के छोटे जन्तु से लेकर हाथी और व्हेल जैसे बड़े जीव-जन्तु आते हैं। जन्तु समुदाय का संघ (Phylum) आर्थोपोडा या कीट वर्ग संसार का सबसे बड़ा संघ है। जो कुल जन्तु जगत की ज्ञात जातियों की 80 प्रतिशत से भी अधिक संख्या प्रदर्शित करती है। कीट वर्ग का बाह्य कंकाल, काइटिन युक्त क्यूटिकल का बना होता है। मोलस्का संघ के जन्तु जैसे घोंघा, सीप, मोती, कटल फिश का बाह्य आवरण कैल्सियम कार्बोनेट का बना होता है।
वनस्पति समुदाय में विभिन्न प्रकार के पेड़ पौधे आते है। वनस्पति समुदाय की कोशिका भित्ति सेलुलोज की बनी होती है। जैवमंडल में वनस्पति समुदाय उत्पादक वर्ग में आते हैं जो प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा भोजन का निर्माण करते हैं।
जैवमंडल में सूक्ष्मजीवी के अन्तर्गत जीवाणु, विषाणु तथा कवक आदि सूक्ष्म जीव आते हैं। जीवाणु ;ठंबजमतपंद्ध सूक्ष्मदर्शी जीव होते हैं। जीवाणु एक कोशकीय , सूक्ष्म प्रोकैरियोटिक वर्ग के अन्तर्गत आते हैं। जीवाणुओं में पोषण मृतोपजीवी, सहजीवी, परजीवी एवं स्वपोषित प्रकार से होता है। कुछ जीवाणु जैसे रोएडोस्पिरिलम, क्रोमोटिम आदि पौधों की भांति प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन स्वयं बनाकर स्वपोषित वर्ग में स्थान रखते हैं जीवाणुओं के इन विविध पोषण विधि के कारण ही इन्हे जैव उद्विकास में पौधों और जन्तुओं के बीच की कड़ी माना जाता है।
विषाणु (Virus) अति सूक्ष्म न्यूक्लियो प्रोटीन के कण होते हैं। विषाणु की एक सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह होती है कि ये केवल दूसरे जीवित कोशिकाओं के सम्पर्क में आने पर ही जनन करते हैं अन्यथा निर्जीव की भांति पड़े रहते हैं।
इसी कारण से विषाणु को जीवित और निर्जीव के बीच की कड़ी माना गया है। विषाणु के द्वारा मानव में एड्स, हेपेटाइटिस, रैबीज, इन्फ्लुएंजा, पोलियो, चेचक, खसरा, डेंगू ज्वर, मेनिनजाइटिस जैसे घातक रोग होते हैं। पौधों में मोजैक रोग विषाणु के द्वारा ही होता है।
इस प्रकार से जीवमंडल में शैवाल, कवक से लेकर उच्चतर वर्ग के पौधों की लगभग साढ़े तीन लाख जातियां हैं तथा एक कोशिकी प्राणी प्रोटोजोआ से लेकर मनुष्य तक एक करोड़ दस लाख प्रकार की प्राणी प्रजातियां सम्मिलित हैं । जीवमंडल इस सभी के लिए आवश्यक सामग्री जैसे- प्रकाश ताप, पानी, भोजन तथा आवास की व्यवस्था करता है।
उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि पर्यावरण की अपनी लय एवं गति होती है जो विभिन्न घटकों के आपसी अन्तःक्रिया के आधार पर संतुलित रहता है। पर्यावरण में अनेक प्रकार के भौतिक और जैविक घटकों को संतुलन बहुत पहले से ही क्रियाशील रहा है। जीवन की इस निरंतरता के मूल में अन्य संबंधों का एक सुगठित तंत्र काम करता है। वायु, जल, मनुष्य, जीव-जन्तु, वनस्पति, मिट्टी, सूक्ष्म जीव ये सब जीवन धारण प्रणाली में दृश्य एवं अदृश्य रुप से एक दूसरे से गुथे हुए हैं और यह व्यवस्था पर्यावरण कहलाती है।
Labels: पर्यावरण अध्ययन


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